स्नेह- धार से अभिसिंचित कर,
कितने हैं प्रमुदित रहते।
"यह जग है मिथ्या, मत भटको इसमें",
कितने यह कहते।
उनको भी दो रोटी देता, जग का उर क्या प्रस्तर है?
यह भी जग का ही स्वर है।।१।।
कर्म- जगत की बहुरंगी गति,
व्यवहारों के फलक अपार।
केवल रसमयता ही व्यापी,
जग का क्या निष्कपट प्रसार!
अनुमोदन की नहीं जरूरत, मोहक ध्वनिमय यह सर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।१।।
कैसी मादकता से विजड़ित,
रिश्तों के मुकुलित आयाम।
'अभिनय कर विकास कर पाओ,
तो पाओगे नित विश्राम' ।
धूप मधुर है, छाया प्यारी, बहुगंधी इत घर- घर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।२।।
जन्म- मृत्यु की मृदु परिघटना,
जीवन के प्रत्येक चरण में ।
छुपा मधुर संदेश निहारो,
इन्द्रधनुष सा जग कण- कण में।
तजो उपेक्षा, खिले सत्व में देखो, अनखिल भास्वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।३।।
बार- बार मन में आता है,
पुनर्जन्म हर बार मिले।
अगणित मानव के बहुरंगी,
जग में जन्म हजार मिले।
चिन्तन औ चिन्ता, दोनों की गरिमा है, अपना वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।५।।
'सत्यवीर' गान्धर्व भाव पर,
पारस की अनुभूति मिली।
वसुन्धरा के मधु निनाद में,
प्रेयगुहा को ज्योति मिली।
ओ सुजान! मत बन! अजान, जग ही सुख का निर्झर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।६।।
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक- 'यह भी जग का ही स्वर है' से}