कर्म-भाग्य का द्वैत पुराना,
कुछ कहते इसको नि:सार।
अर्थहीन इस मनोद्वन्द्व में,
उलझे कुछ अविरल साभार॥1॥
चिन्तन-जग का गहन रसायन
क्या कुछ कम उलझाता है?
वृथा कल्पना-जनित जाल में,
किसको सुख मिल पाता है?2॥
सहज, सुलभ मोती को तजकर,
जो सागर में जाता है।
जीवन का अति सरल भरोसा,
क्या समुद्र में पाता है? 3॥
हृदय-जगत के अलंकार हैं,
मानव के सब मनोविकार।
उनको आन्दोलित कर,
कैसे-
कर सकते उनका परिहार?4॥
नहीं जरूरत सच में किञ्चित,
क्रोध आदि को विजित करो।
जीवन का सौरभ मिलता है,
निस्पृह हो इनमें बिहरो ॥5॥
सच ही भाव-कुभाव बराबर,
यदि वे होवें स्वाभाविक।
जीवन की सुन्दरता को,
तुम कैसे कह सकते मायिक? 6॥
रचयिता- अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{मूल कविता संग्रह- यह भी जग का ही स्वर है}
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