Sunday, April 17, 2016

* यह भी जग का ही स्वर है *

* यह भी जग का ही स्वर है *

स्नेह- धार से अभिसिंचित कर,
कितने हैं प्रमुदित रहते।
"यह जग है मिथ्या, मत भटको-
इसमें" कितने यह कहते।

उनको भी दो रोटी देता, जग का उर क्या प्रस्तर है?
यह भी जग का ही स्वर है।।१।।

कर्म- जगत की बहुरंगी गति,
व्यवहारों के फलक अपार।
केवल रसमयता ही व्यापी,
जग का क्या निष्कपट प्रसार!

अनुमोदन की नहीं जरूरत, मोहक ध्वनिमय यह सर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।२।।

कैसी मादकता से विजड़ित,
रिश्तों के मुकुलित आयाम।
'अभिनय कर विकास कर पाओ,
तो पाओगे नित विश्राम' ।

धूप मधुर है, छाया प्यारी, बहुगंधी इत घर- घर है। यह भी जग का ही स्वर है।।३।।

जन्म- मृत्यु की मृदु परिघटना,
जीवन के प्रत्येक चरण में ।
छुपा मधुर संदेश निहारो,
इन्द्रधनुष सा जग कण- कण में ।

तजो उपेक्षा, खिले सत्व में देखो, अनखिल भास्वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।४।।

बार- बार मन में आता है,
पुनर्जन्म हर बार मिले।
अगणित मानव के बहुरंगी-
जग में जन्म हजार मिले

चिन्तन औ चिन्ता, दोनों की गरिमा है, अपना वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।५।।

'सत्यवीर' गान्धर्व भाव पर,
पारस की अनुभूति मिली।
वसुन्धरा के मधु निनाद में,
प्रेयगुहा को ज्योति मिली।

ओ सुजान! मत बन! अजान, जग ही सुख का निर्झर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।६।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक- 'यह भी जग का ही स्वर है' से}

1 comment:

  1. ¤ सूली के संकेत कहाँ? ¤
    मिली लाडली अपने पिय से, उसका अपना देश जहाँ।
    प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ?1॥

    थी कितनी भयभीत! सुना था;
    सूली ऊपर सेज पिया की।
    यह कपोल कल्पित गाथा,
    अब मरी, न है अब कुछ भी बाकी।
    क्या अगाध विश्राम अनूठा!, नहीँ कल्पना तनिक वहाँ।
    प्रीतम का अभिसार सहज है, शूली के संकेत कहाँ? 2॥

    क्या अकाम मादकता व्यापी!
    दिव्य- वक्ष पर उतरा पावस।
    सदा जागरण- विलसित घट पर,
    नित संक्रान्ति व नित्य अमावस।
    शून्य- मेदिनी की अनुकम्पा, कैसी जीवन- मृत्यु वहाँ?
    प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ? 3॥

    भौँरे से पीड़ित, लालीहत्‌,
    पर, परदेश, कल्प- अवगुण्ठन।
    खिला हठात्‌ पुष्प, जब उर- सर,
    मरा भ्रमर तत्क्षण, पाया धन।
    है अवाक्‌, पर प्रकट उल्लसित, समझो! दिव्य-प्रवेश वहाँ।
    प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ? 4॥

    'सत्यवीर' देखे का अनुभव;
    श्रुत- पत के बिल्कुल विपरीत।
    शास्त्र कहेँ क्या शून्य- दशा को!
    परखो स्वयं समर्पित प्रीत।
    साधन की चर्चा- प्रसंग, नि:सार- भार, पर श्रेय कहाँ?
    प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ?5॥

    अशोक सिँह 'सत्यवीर' {पुस्तक: "पथ को मोड़ देख निज पिय को"} geet no-22

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