गीत राग के हृदय भेद कर,
बुझने का जब उपक्रम करते।
विश्वासों की मृदुल शिला में,
केवल कटुता ही वे भरते।।१।।
अस्तु, बंधु! अब हो तटस्थ,
संतुलन हृदय में धारो।
अति झुकाव की प्रकृति छोड़कर,
सहज स्वभाव प्रचारो।।२।।
'सत्यवीर' आंखों की भाषा,
हृदय-पटल पर छाये।
अधरों की मुस्कान सरल भी,
मोहक प्यार बहाये।।४।।
ओ प्यारे! अब आज लगा लो,
स्नेह-सलिल में डुबकी।
समझ न पाओगे तुम मन की-
व्यथा मिट गयी कब की।।४।।
☆ अशोक सिंह सत्यवीर
[काव्य संग्रह - 'यह भी जग का ही स्वर है " की कुछ पंक्तियाँ ]
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