Friday, September 9, 2016

* धूप छांव सा जीवन यह है फिर क्यों सदा उदास रहूं? *

* धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं? *

इच्छाओं का अंत नहीं है, फिर क्यों इनका भार सहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूँ?।।१।।

जीवन सरिता की चंचल-
धारा में नित्य तरंग उठे।
जाने कब बेचैनी छाये,
कब अनजान उमंग उठे।

जीवन के अमूल्य पल जी लूं,  कटुक उलाहन किसे कहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।२।।

कभी मिल गये, मधु पल आये,
बिछुड़न कभी दर्द ले आये।
कब कुम्हलाये, कब मुस्काये,
जाने कब जीवन-गति भाये।

जाने-पहचाने ये अनुभव, फिर क्यों दुःख में आज बहू?
धूप छांव सा जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।३।।

असफलता के कड़वे अनुभव,
शूलरूप धर उर में छाये।
पर पत्थर सब हीरे निकले,
शूल फूल बन पथ पर आये।

कल की चिंता की ज्वाला में, फिर क्यों खुद को आज दहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं?। ४।।

अच्छे और बुरे का अनुभव-
जीवन भर हम पाते हैं ।
भावों की मदिरा में नित,
नव गोते खूब लगाते हैं।

'सत्यवीर' अब किस आशा में, चिंताओं में पड़ा रहूं?
धूप छांव सा यह जीवन है फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर

No comments:

Post a Comment