प्रेमधार में उछल पड़े,
और किया मधुर तकरार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।१।।
भावों की गहरी नदिया में,
गोते खूब लगाये।
कभी-कभी आकुल हो रोये,
कभी खूब मुस्काये।
कभी शिकायत, कभी मनाना,
कब चुप का व्यापार?
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।२।।
कितनी बार रोक कर साँसें,
इन्तज़ार में बैठे।
काश! लहर इक उठे उधर से,
हों अंदाजे झूठे।
हलचल की अनजान कसौटी,
करे हृदय पर वार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।३।।
चाहे जितना सावधान हो,
करो रोज संवाद।
ख्याल रखो अपनेपन का,
औ डरकर करो विवाद।
किन्तु तुम्हें कुछ पता नहीं,
कब टूट जाय यह डार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।४।।
'सत्यवीर' मायूसी छोड़ो,
यह कुछ नयी न बात।
मिट्टी का यह तन छूटेगा,
जायेगी बारात।
करो शिकायत कुछ न हृदय में,
करो दुआ- बौछार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
(पुस्तक - यह भी जग का ही स्वर है )
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