Saturday, January 14, 2017

* इन नदियों की सीख अनूठी *

* इन नदियों की सीख अनूठी *

कल-कल करती नदियाँ  बहती,
कहतीं, "तुम भी सदा बहो!"
सरिता की लहरें कहतीं हैं,
"जीवन की हलचलें सहो!"।।१।।

नावें चलतीं कहें, "जिंदगी-
भी कितनों को पार करे।"
पक्षी पानी पीते कहते,
"हम औरों का ख्याल करें"।।२।।

नदी किनारे के मछुआरे,
मछली पकड़ रहे देखो!
हम भी जीवन की सरिता से,
क्या पा सकते, कुछ पेखो।।३।।

जीवन-सरिता में तुम देखो,
नित्य तरंगों का उठना।
इन नदियों की सीख अनूठी,
सुखी भाव में गति करना।।4।।

"सत्यवीर" नदियों की भाषा,
हमको प्रकृति सिखाती है।
इसे सीखकर जो अपनायें,
उन्हें जिन्दगी भाती है।।5।।

अशोक सिंह सत्यवीर

Thursday, January 12, 2017

मिले या न मिले

ज़िन्दगी अनमोल होती,  वक्त भी अनमोल है,
मिल रहे जो भी हमें, इंसान सब अनमोल है।।१।।

कर लिया दीदार, मुस्काये, ज़रा ठहरो अभी,
लुत्फ ले लो साथ का यह साथ भी अनमोल है।।२।।

दो  घड़ी ग़र बात की, और साथ थोड़ा सा दिया;
बन गये इतिहास ये पल, यह मिलन अनमोल है।।३।।

'सत्यवीर' कहें इबादत है मिलन,  जब दिल मिलें।
साथियों हंस दो कि यह पल, फिर मिले या ना मिले।।४।।

☆ अशोक सिंह सत्यवीर

Wednesday, November 23, 2016

* रखो संतुलित भाव यदि *

पा न सके निवृत्ति कुछ, उलझे आठों याम।

अनसुलझा अब तक रहा, भावों का संग्राम।।१।।

दोष किसे दें रार का, प्रेम शिथिल जो आज।

खुद के भावों बिक गये, स्वयं बिगाड़े काज।।२।।

क्या होगा? किस कथन से? सोच कहो यदि बात।

रिश्ते मधुर बनें रहें, घटे न कुछ व्याघात।।३।।

रखो संतुलित भाव यदि, औ निश्छल व्यवहार।
'सत्यवीर' तब हृदय में, उमड़े मोद अपार।।४।।

☆ अशोक सिंह सत्यवीर

Wednesday, November 9, 2016

** संतुलन हृदय में धारो **

गीत राग के हृदय भेद कर,
बुझने का जब उपक्रम करते।
विश्वासों की मृदुल शिला में,
केवल कटुता ही वे भरते।।१।।

अस्तु, बंधु! अब हो तटस्थ,
संतुलन हृदय में धारो।
अति झुकाव की प्रकृति छोड़कर,
सहज स्वभाव प्रचारो।।२।।

'सत्यवीर' आंखों की भाषा,
हृदय-पटल पर छाये।
अधरों की मुस्कान सरल भी,
मोहक प्यार बहाये।।४।।

ओ प्यारे! अब आज लगा लो,
स्नेह-सलिल में डुबकी।
समझ न पाओगे तुम मन की-
व्यथा मिट गयी कब की।।४।।

☆ अशोक सिंह सत्यवीर
[काव्य संग्रह - 'यह भी जग का ही स्वर है " की कुछ पंक्तियाँ ]

Friday, September 9, 2016

* धूप छांव सा जीवन यह है फिर क्यों सदा उदास रहूं? *

* धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं? *

इच्छाओं का अंत नहीं है, फिर क्यों इनका भार सहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूँ?।।१।।

जीवन सरिता की चंचल-
धारा में नित्य तरंग उठे।
जाने कब बेचैनी छाये,
कब अनजान उमंग उठे।

जीवन के अमूल्य पल जी लूं,  कटुक उलाहन किसे कहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।२।।

कभी मिल गये, मधु पल आये,
बिछुड़न कभी दर्द ले आये।
कब कुम्हलाये, कब मुस्काये,
जाने कब जीवन-गति भाये।

जाने-पहचाने ये अनुभव, फिर क्यों दुःख में आज बहू?
धूप छांव सा जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।३।।

असफलता के कड़वे अनुभव,
शूलरूप धर उर में छाये।
पर पत्थर सब हीरे निकले,
शूल फूल बन पथ पर आये।

कल की चिंता की ज्वाला में, फिर क्यों खुद को आज दहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं?। ४।।

अच्छे और बुरे का अनुभव-
जीवन भर हम पाते हैं ।
भावों की मदिरा में नित,
नव गोते खूब लगाते हैं।

'सत्यवीर' अब किस आशा में, चिंताओं में पड़ा रहूं?
धूप छांव सा यह जीवन है फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर

Thursday, September 8, 2016

प्रेम पयोधि विचित्र

मेरी दुनिया खिल उठी, मचले हृदय अपार।
पिय-छवि में ऐसा लगे, मुस्काये संसार।।१।।

रीति जगत की घुल गयी, प्रेम पयोधि विचित्र।
अनजानी मादक लहर,बनी अचानक मित्र।।२।।

जित देखूँ प्रियतम दिखें,यह कैसा आवेश।
भाव जगत के भेद से, पायी दृष्टि विशेष।।३।।

"सत्यवीर" सुमधुर दशा, नहीं उलाहन आज।
अनभिव्यक्त कुछ भाव हैं, बैठी प्रेम-जहाज ।।४।।

अशोक सिंह सत्यवीर

(पुस्तक - यह भी जग का ही स्वर है )

Saturday, August 13, 2016

* यही जगत-व्यवहार *

प्रेमधार में उछल पड़े,
और किया मधुर तकरार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।१।।

भावों की गहरी नदिया में,
गोते खूब लगाये।
कभी-कभी आकुल हो रोये,
कभी खूब मुस्काये।

कभी शिकायत, कभी मनाना,
कब चुप का व्यापार?
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।२।।

कितनी बार रोक कर साँसें,
इन्तज़ार में बैठे।
काश! लहर इक उठे उधर से,
हों अंदाजे झूठे।

हलचल की अनजान कसौटी,
करे हृदय पर वार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।३।।

चाहे जितना सावधान हो,
करो रोज संवाद।
ख्याल रखो अपनेपन का,
औ डरकर करो विवाद।

किन्तु तुम्हें कुछ पता नहीं,
कब टूट जाय यह डार।
किसे पता?  कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।४।।

'सत्यवीर' मायूसी छोड़ो,
यह कुछ नयी न बात।
मिट्टी का यह तन छूटेगा,
जायेगी  बारात।

करो शिकायत कुछ न हृदय में,
करो दुआ- बौछार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर
(पुस्तक - यह भी जग का ही स्वर है )