Wednesday, November 23, 2016

* रखो संतुलित भाव यदि *

पा न सके निवृत्ति कुछ, उलझे आठों याम।

अनसुलझा अब तक रहा, भावों का संग्राम।।१।।

दोष किसे दें रार का, प्रेम शिथिल जो आज।

खुद के भावों बिक गये, स्वयं बिगाड़े काज।।२।।

क्या होगा? किस कथन से? सोच कहो यदि बात।

रिश्ते मधुर बनें रहें, घटे न कुछ व्याघात।।३।।

रखो संतुलित भाव यदि, औ निश्छल व्यवहार।
'सत्यवीर' तब हृदय में, उमड़े मोद अपार।।४।।

☆ अशोक सिंह सत्यवीर

Wednesday, November 9, 2016

** संतुलन हृदय में धारो **

गीत राग के हृदय भेद कर,
बुझने का जब उपक्रम करते।
विश्वासों की मृदुल शिला में,
केवल कटुता ही वे भरते।।१।।

अस्तु, बंधु! अब हो तटस्थ,
संतुलन हृदय में धारो।
अति झुकाव की प्रकृति छोड़कर,
सहज स्वभाव प्रचारो।।२।।

'सत्यवीर' आंखों की भाषा,
हृदय-पटल पर छाये।
अधरों की मुस्कान सरल भी,
मोहक प्यार बहाये।।४।।

ओ प्यारे! अब आज लगा लो,
स्नेह-सलिल में डुबकी।
समझ न पाओगे तुम मन की-
व्यथा मिट गयी कब की।।४।।

☆ अशोक सिंह सत्यवीर
[काव्य संग्रह - 'यह भी जग का ही स्वर है " की कुछ पंक्तियाँ ]

Friday, September 9, 2016

* धूप छांव सा जीवन यह है फिर क्यों सदा उदास रहूं? *

* धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं? *

इच्छाओं का अंत नहीं है, फिर क्यों इनका भार सहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूँ?।।१।।

जीवन सरिता की चंचल-
धारा में नित्य तरंग उठे।
जाने कब बेचैनी छाये,
कब अनजान उमंग उठे।

जीवन के अमूल्य पल जी लूं,  कटुक उलाहन किसे कहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।२।।

कभी मिल गये, मधु पल आये,
बिछुड़न कभी दर्द ले आये।
कब कुम्हलाये, कब मुस्काये,
जाने कब जीवन-गति भाये।

जाने-पहचाने ये अनुभव, फिर क्यों दुःख में आज बहू?
धूप छांव सा जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।३।।

असफलता के कड़वे अनुभव,
शूलरूप धर उर में छाये।
पर पत्थर सब हीरे निकले,
शूल फूल बन पथ पर आये।

कल की चिंता की ज्वाला में, फिर क्यों खुद को आज दहूँ?
धूप छांव सा यह जीवन है, फिर क्यों सदा उदास रहूं?। ४।।

अच्छे और बुरे का अनुभव-
जीवन भर हम पाते हैं ।
भावों की मदिरा में नित,
नव गोते खूब लगाते हैं।

'सत्यवीर' अब किस आशा में, चिंताओं में पड़ा रहूं?
धूप छांव सा यह जीवन है फिर क्यों सदा उदास रहूं?।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर

Thursday, September 8, 2016

प्रेम पयोधि विचित्र

मेरी दुनिया खिल उठी, मचले हृदय अपार।
पिय-छवि में ऐसा लगे, मुस्काये संसार।।१।।

रीति जगत की घुल गयी, प्रेम पयोधि विचित्र।
अनजानी मादक लहर,बनी अचानक मित्र।।२।।

जित देखूँ प्रियतम दिखें,यह कैसा आवेश।
भाव जगत के भेद से, पायी दृष्टि विशेष।।३।।

"सत्यवीर" सुमधुर दशा, नहीं उलाहन आज।
अनभिव्यक्त कुछ भाव हैं, बैठी प्रेम-जहाज ।।४।।

अशोक सिंह सत्यवीर

(पुस्तक - यह भी जग का ही स्वर है )

Saturday, August 13, 2016

* यही जगत-व्यवहार *

प्रेमधार में उछल पड़े,
और किया मधुर तकरार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।१।।

भावों की गहरी नदिया में,
गोते खूब लगाये।
कभी-कभी आकुल हो रोये,
कभी खूब मुस्काये।

कभी शिकायत, कभी मनाना,
कब चुप का व्यापार?
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।२।।

कितनी बार रोक कर साँसें,
इन्तज़ार में बैठे।
काश! लहर इक उठे उधर से,
हों अंदाजे झूठे।

हलचल की अनजान कसौटी,
करे हृदय पर वार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।३।।

चाहे जितना सावधान हो,
करो रोज संवाद।
ख्याल रखो अपनेपन का,
औ डरकर करो विवाद।

किन्तु तुम्हें कुछ पता नहीं,
कब टूट जाय यह डार।
किसे पता?  कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।४।।

'सत्यवीर' मायूसी छोड़ो,
यह कुछ नयी न बात।
मिट्टी का यह तन छूटेगा,
जायेगी  बारात।

करो शिकायत कुछ न हृदय में,
करो दुआ- बौछार।
किसे पता? कब टूट जाय?
यह प्रेमभरा व्यवहार।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर
(पुस्तक - यह भी जग का ही स्वर है )

Friday, August 5, 2016

लोकगीत (सोहर)

सोहर:

गरजहुँ ए देव, गरजहुँ, गरजि सुनावहुँ हो,
देव बरसहुँ जव के खेत, बरसि जुड़ावहुँ हो।।
जनमहुँ ए पूत, जनमहुँ, मोरे दुखिया घरे हो,
पूत, उजरल डिहवा बसावहुँ, बपइया जुड़ावहुँ हो।।
कइसे के जनमहुँ ए माई, कइसे के जनमहुँ  हो,
माई, टुटही खटियवा सुतइबू त रेइया गोहरइबू हो।।
जनमहुँ ए पूत, जनमहुँ मोरे दुखिया घरे हो,
पूत आल्हर चनन कटाइब, पलँगिया सुताइब, पितम्बर उड़ाइब
अहोइया गोहरइब हो।।
तेलवा त मिलिहें उधार, त नुनवा बेवहार मिले हो
माई, कोखिया के कवन उधार, जबहिं बिधि देइहें
तबहिं तुहूँ पइबू हो।।
आधी रात गइले पहर रात, होरिला जनम लेले हो
रामा बाजे लागल आनंद बढावा, उठन लगे सोहर हो।।

  गरजो हे देव! गरजो; गरज सुनाओ। बरसो देव जौ के खेत में, शीतल करो बरसकर।।
  जनमो हे पुत्र! जनमो, मुझ दुखिया के घर; उजड़ा डीह बसाओ,  शीतल करो पिता को।।
  कैसे जनमूँ माँ! कैसे जनमूँ, टूटी खाट पर सुलाओगी, 'रे' कहकर बुलाओगी ।।
  जनमो हे पुत्र! जनमो मुझ दुखिया के घर, कोमल चंदन कटाऊँगी, (उसी ) पलंग पर सुलाऊँगी, पीताम्बर उढ़ाऊँगी, 'अहो' कह पुकारूँगी।।
  तेल तो उधार मिलता है, व्यवहार से मिल जाता है नमक, (पर ) माँ! कोख कहाँ उधार मिलती है! जब विधाता देंगे तभी तुम भी पाओगी।।
  रात आधी गयी, पहर भर और गयी,  पुत्र ने जन्म  लिया, आनंद-बधावा बजने लगा, सोहर उठने लगे।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'

Wednesday, June 15, 2016

** यादों की खिड़की खुली **

** यादों की खिड़की खुली **

मधुर वायु है बह रही, रोमांचित सब अंग।
यादों की खिड़की खुली, उहापोह के संग।।१।।

प्रिय की मोहक छवि बसी, आँखों में अविराम।
चपला चमके हृदय में, नित्य सुबह से शाम।।२।।

प्रेम भरे दो नैन वो, कहें कहानी रोज़।
मेरी सब रातें  करें, बस प्रीतम की ख़ोज़।।३।।

'सत्यवीर' बेचैन हैं, मेरी आँखें आज।
प्रिय को देखूँ नैन भर, बैठूँ प्रेम-जहाज।।४।।

यादें छीनें चैन सब, पर प्रसन्न मन कह रहा ।
"सुखी रहें हों जहाँ भी, सागर उर में बह रहा ।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर

(काव्यकृति - यह भी जग का ही स्वर है )

Sunday, May 15, 2016

* यह भी जग का ही स्वर है *


स्नेह- धार से अभिसिंचित कर,
कितने हैं प्रमुदित रहते।
"यह जग है मिथ्या, मत भटको इसमें",
कितने यह कहते।

उनको भी दो रोटी देता, जग का उर क्या प्रस्तर है?
यह भी जग का ही स्वर है।।१।।

कर्म- जगत की बहुरंगी गति,
व्यवहारों के फलक अपार।
केवल रसमयता ही व्यापी,
जग का क्या निष्कपट प्रसार!

अनुमोदन की नहीं जरूरत, मोहक ध्वनिमय यह सर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।१।।

कैसी मादकता से विजड़ित,
रिश्तों के मुकुलित आयाम।
'अभिनय कर विकास कर पाओ,
तो पाओगे नित विश्राम' ।

धूप मधुर है, छाया प्यारी, बहुगंधी इत घर- घर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।२।।

जन्म- मृत्यु की मृदु परिघटना,
जीवन के प्रत्येक चरण में ।
छुपा मधुर संदेश निहारो,
इन्द्रधनुष सा जग कण- कण में।

तजो उपेक्षा, खिले सत्व में देखो, अनखिल भास्वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।३।।

बार- बार मन में आता है,
पुनर्जन्म हर बार मिले।
अगणित मानव के बहुरंगी,
जग में जन्म हजार मिले।

चिन्तन औ चिन्ता, दोनों की गरिमा है, अपना वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।५।।

'सत्यवीर' गान्धर्व भाव पर,
पारस की अनुभूति मिली।
वसुन्धरा के मधु निनाद में,
प्रेयगुहा को ज्योति मिली।

ओ सुजान! मत बन! अजान, जग ही सुख का निर्झर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।६।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक- 'यह भी जग का ही स्वर है' से}

Sunday, April 17, 2016

* यह भी जग का ही स्वर है *

* यह भी जग का ही स्वर है *

स्नेह- धार से अभिसिंचित कर,
कितने हैं प्रमुदित रहते।
"यह जग है मिथ्या, मत भटको-
इसमें" कितने यह कहते।

उनको भी दो रोटी देता, जग का उर क्या प्रस्तर है?
यह भी जग का ही स्वर है।।१।।

कर्म- जगत की बहुरंगी गति,
व्यवहारों के फलक अपार।
केवल रसमयता ही व्यापी,
जग का क्या निष्कपट प्रसार!

अनुमोदन की नहीं जरूरत, मोहक ध्वनिमय यह सर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।२।।

कैसी मादकता से विजड़ित,
रिश्तों के मुकुलित आयाम।
'अभिनय कर विकास कर पाओ,
तो पाओगे नित विश्राम' ।

धूप मधुर है, छाया प्यारी, बहुगंधी इत घर- घर है। यह भी जग का ही स्वर है।।३।।

जन्म- मृत्यु की मृदु परिघटना,
जीवन के प्रत्येक चरण में ।
छुपा मधुर संदेश निहारो,
इन्द्रधनुष सा जग कण- कण में ।

तजो उपेक्षा, खिले सत्व में देखो, अनखिल भास्वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।४।।

बार- बार मन में आता है,
पुनर्जन्म हर बार मिले।
अगणित मानव के बहुरंगी-
जग में जन्म हजार मिले

चिन्तन औ चिन्ता, दोनों की गरिमा है, अपना वर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।५।।

'सत्यवीर' गान्धर्व भाव पर,
पारस की अनुभूति मिली।
वसुन्धरा के मधु निनाद में,
प्रेयगुहा को ज्योति मिली।

ओ सुजान! मत बन! अजान, जग ही सुख का निर्झर है।
यह भी जग का ही स्वर है।।६।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक- 'यह भी जग का ही स्वर है' से}